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उत्तर प्रदेश भारतीय सियासत का एक ऐसा गढ़ है जो पूरे देश में सबसे अधिक सीटों वाला विधानसभा क्षेत्र होने के साथ देश की राजनीति में अहम रोल अदा करता है. यहां से कई बड़े नेता अपनी किस्मत आजमाते हैं. इस क्षेत्र का महत्व इतना है कि कांग्रेस की आलाकमान सोनिया गांधी और राहुल गांधी को इस क्षेत्र से खास प्रेम है. लेकिन सिर्फ बड़े नेता ही नहीं बल्कि इस क्षेत्र में छोटे नेताओं का भी खासा बोलबाला है. इस क्षेत्र से कई बार कुछ ऐसे छोटे नेता सामने आते हैं जो आगे जाकर बड़े नेता बन जाते हैं. यूपी में क्षेत्रवाद और जातिवाद का प्रचंड रूप देखने को मिलता है.
यहां भाषा और क्षेत्र के नाम पर लोग वोट तो क्या जान भी दे देते हैं. ऐसे में सियासी खिलाड़ियों को अपनी राजनीति चमकाने का अच्छा अवसर मिल जाता है. उत्तर प्रदेश में 80 के दशक के बाद से जातिवादी राजनीति के परवान चढ़ने के साथ ही सियासी महत्वाकांक्षाएं लेकर जन्म लेने वाले छोटे दलों की संख्या में निरंतर बढ़ोत्तरी हुई है. हालांकि एकाध मौकों को छोड़कर वे राजनीतिक समीकरणों पर कोई खास असर डालने में सफल नहीं रहे हैं.
पंजीकृत लेकिन गैर मान्यता प्राप्त दलों के चुनाव मैदान में उतरने की शुरुआत वर्ष 1962 में हुए राज्य के तीसरे विधानसभा चुनाव में दलित आधारित राजनीति करने वाली रिपब्लिकन पार्टी और दक्षिणपंथी विचारधारा वाली हिंदू महासभा एवं राम राज्य परिषद के मैदान में उतरने के साथ हुई. तब रिपब्लिकन पार्टी को आठ सीटें मिली थीं और हिंदू महासभा को दो जबकि राम राज्य परिषद खाली हाथ रह गई थी.
किसी गैर मान्यता प्राप्त पंजीकृत राजनीतिक दल को पहली और प्रभावी कामयाबी वर्ष 1969 के चुनाव में चौधरी चरण सिंह की अगुवाई वाले भारतीय क्रांतिदल को मिली, जो 98 सीटों पर जीत दर्ज करने के साथ राज्य की 425 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस के बाद सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी.
सूबे में जातिवादी राजनीति की शुरुआत रिपब्लिकन पार्टी ने की थी. शुरुआत में उसे थोड़ी कामयाबी भी मिली लेकिन आगे चलकर उसका कांग्रेस में विलय हो जाने के बाद इस रंग-ओ-बू की सियासत करीब डेढ़ दशक तक खामोश रही.
वर्ष 1985 में बहुजन समाज पार्टी के प्रादुर्भाव और उसकी सफलता ने जाति विशेष में थोड़ा-बहुत प्रभाव रखने वाले सियासी लोगों का मनोबल बढ़ाया और अपना दल, राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी, इंडियन जस्टिस पार्टी तथा लोक जनशक्ति पार्टी के गठन के साथ जातिवाद की लहलहाती फसल को काटने के लिए सियासी दल बनाने का सिलसिला चल निकला.
प्रदेश में राम मंदिर आदोलन की शुरुआत के बाद धर्म आधारित राजनीति करने वाले दलों का भी उभार शुरू हुआ और इस मैदान में शिवसेना और उलमा कौंसिल जैसे दलों ने भी किस्मत आजमाने की कोशिश की और पिछले लोकसभा चुनाव में कुछ अंचलों में प्रभाव के साथ उभरी डाक्टर अयूब की पीस पार्टी को भी इसी मैदान का खिलाड़ी माना जा रहा है, हालांकि इसके पदाधिकारियों में लगभग सभी जातियों और धर्मों के अनुयाई शामिल हैं.
राज्य में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में पीस पार्टी, अपना दल और इंडियन जस्टिस पार्टी जैसे कुछ प्रभावशाली दल रणनीति बदलते हुए समान विचारधारा वाली कई पार्टियों के साथ गठबंधन करके मैदान मारने की फिराक में हैं.
प्रदेश के चुनावी इतिहास पर नजर डालें तो पाएंगे कि वर्ष 1985 के बाद से चुनाव मैदान में छोटे दलों की संख्या लगातार बढ़ी है. साल 1985 में जहां सिर्फ दो गैर मान्यता प्राप्त पंजीकृत पार्टियों ने चुनाव लड़ा था, वहीं वर्ष 2007 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में छोटे दलों की तादाद 111 तक पहुंच गई.
इस बार भी यूपी विधानसभा चुनाव में छोटी पार्टियों का असर ज्यादा देखने को मिलेगा. जाति और धर्म इन पार्टियों के अहम हथियार बने रहेंगे.
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